कल्चर की जांच करवाने के बाद ही दें एंटोबॉयोटिक दवाइयां

इंदौर : छोटी-छोटी बीमारियों में जल्दी ठीक होने के लालच में जरूरत नहीं होने पर भी एंटीबॉयोटिक लेने से लोगों में तेजी से एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस बनने लगा है। इससे उन लोगों में दवाईयों का असर होना बंद हो जाता है। डायबिटीज या अऩ्य  बीमारियों से ग्रसित मरीजों के अलावा बाकी लोगों को बिना कल्चर जांच के एंटीबॉयोटिक नहीं देना चाहिए। यह बात मेदांता अस्पताल की इंटरनल मेडिसीन और क्रिटिकल केयर स्पेशलिस्ट डॉ. ज्योति वाधवानी ने वर्ल्ड एंटीबॉयोटिक वीक में एंटीबॉयोटिक मेडिसीन के दुष्प्रभावों पर चर्चा करते हुए कही।

डॉ. ज्योति वाधवानी के अनुसार डायबिटीज पेशेन्ट, अल्कोहलिक, किडनी या अन्य गंभीर बीमारियों से ग्रसित, बुजुर्ग और लो इम्युनिटी वाले पेशेंट में इन्फेक्शन को तेजी से बढ़ने की संभावना रहती है, जिससे इनमें तुरंत एंटीबॉयोटिक देने की जरूरत होती है। लेकिन अन्य मरीजों में इसकी जरूरत तुरंत नहीं होती है। पुराने एंटीबायोटिक्स जैसे एमोक्सिसिलीन, अमीनोग्लांइकोसाइड्स को पहले से मौजूद रेजिस्टेंस और असर नहीं होने की वजह से देना कम या बंद कर दिया गया है। बेहद जरूरी है कि डॉक्टर किसी को भी एंटीबॉयोटिक देने के पहले कल्चर/पीसीआर आधारित जांच को बढ़ावा दे। यूरिन, ब्लड, मवाद, बलगम आदि सभी तरह के कल्चर से हम यह जान सकते है कि मरीज को एंटीबॉयोटिक की जरूरत है या नहीं, और है तो किस तरह की एंटीबॉयोटिक दी जाना चाहिए। अब कई सारे कल्चर और पीसीआर परीक्षण, जांच के साथ ड्रग रेजिस्टेंस भी उपलब्ध कराते हैं।

डॉ. वाधवानी के मुताबिक आम लोगों को भी बेवजह और अधिक मात्रा में एंटीबायोटिक के इस्तेमाल के बुरे प्रभाव के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए। ज्यादातर ऑर्गैनिस्म संक्रमित पानी और खाने के माध्यरम से फैलता है। इंदौर में यह कल्चर बहुत अधिक है और इसका खाने-पीने के दौरान इसका ध्यान भी कम से कम रखा जाता है। इसके साथ ही जिन लोगों के घर कुत्ते, बिल्ली या अन्य घरेलू जानवर है, उनसे भी बीमारियों का खतरा होता है। बेहतर है कि हम इन जानवरों को समय-समय पर लगने वाले वैक्सीनेशन से लेकर इनके रहन-सहन तक में हाइजिन का ध्यान रखे।

इसके साथ ही बच्चों में वैक्सीनेशन के साथ बूस्टर आदि भी समय पर लगाए, ताकि इम्युअन सिस्टम मजबूत रहे। संक्रमण को रोकने की स्थिति में बीमारियों से बचा जा सकता है और एंटीबॉयोटिक का प्रयोग अपने आप कम हो जाएगा।

डॉ. वाधवानी बताती है कि बीमार के साथ डॉक्टर्स में भी अवेयरनेस फैलाने की बहुत जरूरत है, अन्यथा आने वाले दिनों में छोटी-छोटी बीमारियों की स्थिति में जरूरत होने पर हाई एंटीबॉयोटिक का प्रयोग करना मजबूरी हो जाएगा। सीधे मेडिकल स्टोर से या फिर नॉन एमबीबीएस डॉक्टर्स द्वारा प्रिस्क्राइब की जाने वाली एंटीबॉयोटिक से भी एंटीबॉयोटिक रजिस्टेंस डेवलप हो रहा है। इस तरह की प्रैक्टिस से पूरी तरह बचने की जरूरत है।

डॉ. वाधवानी के अनुसार वायरल फीवर होते ही लोगों को एंटीबॉयोटिक दे दी जाती है, जबकि हर समय इसकी जरूरत नहीं होती है। अगर इसकी जरूरत दिखती है तो उसका ब्लड कल्चर करवाना चाहिए ताकि मालूम पड़ सकें कि एंटीबॉयोटिक की जरूरत है भी है या नहीं। कल्चर रिपोर्ट से न केवल एंटीबॉयोटिक की जरूरत का पता चलता है बल्कि यह भी पता चल सकता है कि कौन-सी एंटीबॉयोटिक बीमारी में प्रभावी होगी। वर्तमान पीढ़ी में कई एंटीबॉयोटिक का प्रयोग असर नहीं होने के कारण बंद करना पड़ा है। इसमें एमोक्सिसिलीन जैसी एंटोबॉयोटिक है, जिनके स्थान पर हाई एटीबॉयोटिक दिया जाता है। जागरूकता, जल्दी ठीक होने की गलत चाह और कम ज्ञान के अभाव में वर्तमान पीढ़ी में एंटीबॉयोटिक का गलत ट्रेंड फैला है लेकिन हम बच्चों और नई पीढ़ी में जागरूकता फैलाकर उन्हें इससे जरूर बचा सकते हैं।

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