एक साधारण गवली से महान संत कैसे बने सिंगाजी

शरद पूर्णिमा पर विशेष…

Jai Hind News
Indore
सतपुड़ा की पर्वत श्रंखला व मां नर्मदा के भूभाग में बसा निमाड़ अंचल भारत देश में सशक्त और जीवंत लोक भाषा निमाड़ी का केंद्र बिंदू माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि निमाड़ी लोक भाषा में सर्व प्रथम रचना श्री ब्रह्मगीर जी स्वामी ने की वे निमाड़ी संत साहित्य के आध्य प्रवर्तक माने जाते हैं। ब्रह्मगिर स्वामी श्री मनरंग जी के गुरु थे और मनरंग स्वामी निमाड़ खण्ड के महान संत श्री सिंगाजी स्वामी के गुरु थे। मनरंग स्वामी की वाणी से ब्रह्मगिर स्वामी रचित भजन
“समझो लेओ रे मणा भोई, अन्त नी होय कोई अपणो” को सुनते ही सिंगाजी को ज्ञान उत्पन्न हुआ और वे एक साधारण गवली से महान संत हो गए।

सिंगाजी का जन्म बड़वानी स्टेट के खजूरी ग्राम में विक्रम संवत 1576 में वैशाख सुदी 11 गुरुवार, पुष्प नक्षत्र में सूर्योदय के समय एक गवली परिवार में हुआ।पिता का भीमा जी व माता का गौर बाई नाम था। उनके बड़े भाई लिम्बा जी और एक बहन कृष्णा बाई थीं। उनके चार बच्चे कालू, भोलू, सन्दू तथा दोपा थे।
सिंगाजी अपने प्रारम्भिक जीवन में गीत गाकर देव बड़ओं को खूब घुमाते थे। वे मथवाड भी अच्छी गाते थे तथा बांसुरी भी अच्छी बजाते थे। योगी यतियो की सेवा तो करते थे किन्तु हरि भक्ति का मर्म नहीं जानते थे। एक दिन सिंगाजी को श्री मनरंग स्वामी के दर्शन हुए और उन्हें हरि गुण सुनकर वैराग्य हो गया और परिवार के साथ हरसूद नगर में रहकर प्रभू स्मरण में लीन रहे। बाद में वे पिपल्या गांव यानी आज का सिंगाजी में बस गए। यहीं उन्हें ईश्वर दर्शन हुए और वे संत सिंगाजी के नाम से विख्यात हुए।
सिंगाजी ने स्वेच्छा से संवत 1616 में श्रावण सुदी नवमी के दिन देह त्याग कर समाधि ली। जहां उनकी स्मृति में कुंवार मास की शरद पूर्णिमा पर एक पखवाड़े तक प्रति वर्ष मेला लगता है। इस मेले में उत्तम नस्ल के मवेशियों की बड़े पैमाने पर खरीद फरोख्त होती है।

आस्था ही इलाज
किसी पर कोई आपदा आ जाय, किसी का पशु गुम जाय या फिर किसी की गाय भैस दूध देना बन्द कर दें तो स्वामी सिंगाजी की मनोती की जाती है। मनोती पूरी होने पर लोग पैदल ही घी के कलश लेकर समाधि पर प्रज्वलित अखंड ज्योति के लिए घी अर्पित करते हैं। यह अखंड ज्योति स्वामी सिंगाजी के निर्वाण के दिन से आज पर्यंत ज्योतिर्मय है।

निर्गुण भजनों की रचना
संत सिंगाजी ने अपनी योग साधना से प्रत्यक्ष
साक्षात्कार किया और उसे अपने उपदेशों में जगत को बताया जिसका वर्णन उनके असंख्य भजनों में मिलता है। सिंगा जी ने निमाड़ी भाषा में कोई ग्यारह सौ निर्गुण भजनों की रचना की जिससे निमाड़ का संत साहित्य सम्रद्ध हुआ। आज भी उनके भजनों के पद निमाड़ के ग्रामीण अंचल में जन जन में प्रचलित हैं।

रचनाएं वाचिक परम्परा में पलते रहे
सिंगा जी भजन तथा अन्य रचनाओं का व्यवस्थित प्रकाशन न होकर वाचिक परम्परा में ही पलते रहे और उनको सिंगा के भजनों को गाते हुए अपनी स्मृतियों में संजोए रखा। सिंगा जी की रचनाओं में भजन, साखी, दृड़ उपदेश, आत्म ध्यान, दोष बोध, नरद, शरद, देश की वाणी, बाणावली, सात वार, पंद्रह तिथि तथा बारहमासी आदि जगत मे सिन्गाजी नाम से जाने जाते हैं।

साहित्यकारों की नजर में सिंगा महाराज
निमाड़ी साहित्य के पितृ पुरुष व देश के प्रसिध्द साहित्यकार पदम श्री पण्डित राम नारायण उपाध्याय ने सिंगाजी द्वारा रचित तथा सिंगाजी पर रचित सम्पुर्ण निमाड़ी साहित्य की शोध परक खोज कर अपने लेखन से संवार कर प्रकाश में लाए जो उनके द्वारा रचित “संत सिंगाजी : एक अध्ययन ” पुस्तक में समाहित है। इतना ही नहीं खंडवा के ही श्री रघुनाथ मंडलोई (आर,एन, मंडलोई फिल्म निर्माता व निर्देशक) ने 80 के दशक में रविकला चित्र मुंबई के बैनर तले सिन्गाजी महाराज के जीवन चरित्र पर “संत सिंगाजी” नाम से निमाड़ी बोली में एक फिल्म का निर्माण भी किया है जो काफी सराही गई। एक अन्य साहित्यकार डाक्टर श्री राम परिहार ने भी “कहे जन सिंगा” पुस्तक में सिंगा जी रचनाओं का समावेश किया है। उनका लेखन ईसुरी पुरस्कार से सम्मानित भी हुआ। इसके अतिरिक्त भी आपने सिंगाजी दर्शन पर साहित्य प्रकाशित किया है।

निमाड़ की शरद पूर्णिमा यानी सिंगाजी का पूजन
मध्यप्रदेश के सबसे प्रसिद्ध संत सिन्गाजी महाराज के समाधि स्थल पर प्रति वर्ष शरद पूर्णिमा पर बड़ी संख्या में संत श्री को मानने वालों का जमावड़ा होता है। मान्यता के अनुसार गोपालक अपने गौ धन की रक्षा व कुशलता के लिए यहाँ सिंगा महाराज की समाधि पर घी व शकर के प्रसाद के अलावा निशान भी अर्पित करते हैं। इस अवसर पर दूर दूर से पशु पालक उच्च नस्ल के पशुधन की खरीद फरोख्त भी यहाँ करते हैं । चूँकि इस वर्ष कोरोनाकाल के कारण नियमों का पालन आस्थावानों को करना होगा।
 निमाड़ के प्रसिद्ध संत सिंगाजी मेला शरद पूर्णिमा से शुरू होता है। इस दौरान श्रद्धालु सिंगाजी महाराज की समाधि पर मत्था टेकने आते हैं। निमाड़ की संस्कृति और परंपरा इस मेले में दिखती है। इसलिए यह मेला विदेशों तक अपनी पहचान बना चुका है। यह स्थान हरसूद के पास बीड़ में हैं।
निमाड़ की आस्था के प्रतीक इस मेले में झाबुआ, बड़वानी, बैतूल, खरगोन के अलावा महाराष्ट्र सहित अन्य प्रदेशों के श्रद्धालु जुटते हैं। सिंगाजी समाधि पर मुख्य रूप से घी, नारियल, चिरोंजी का प्रसाद चढ़ाया जाता है। जिन भक्तों की मन्नत पूरी होती है, वे यहां भंडारा भी करते हैं।

अब टापू पर है समाधि
खंडवा से 45 किमी दूर है संत सिंगाजी की समाधि सन 2004 के पहले तक सिंगाजी गांव में मैदान पर थी लेकिन इंदिरा सागर बांध के बेक वाटर में डूब गई। भक्तों की मांग पर यहां टापू बनाकर समाधि स्थल को सुरक्षित किया। आज यह प्रदेश का सबसे आधुनिक मानव निर्मित टापू है। 100 एकड़ में फैले इस टापू पर हर साल शरद पूर्णिमा पर मेला लगता है।

मेरा उद्देश्य यही
हिन्दी व निमाड़ी भाषी भारतीय समाज संत सिंगा जी के आत्म ज्ञान, उपदेश, ज्ञान योग, आत्म परमात्म, इलन, दिव्य गुणों और भगवत प्रेम से परिचित हो सकें यही ध्येय है।
– निशिकांत मंडलोई
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार व फोटोग्राफर हैं। यह आलेख उनके निजी अनुभव और जानकारी पर आधारित हैं)

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